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सामाजिक कहानियाँ >> सप्त सुमन (कहानी-संग्रह)

सप्त सुमन (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :164
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8626

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मुंशी प्रेमचन्द की सात प्रसिद्ध सामाजिक कहानियाँ

प्रेमचन्द (1880-1936 ई.) विश्वस्तर के महान उपन्यासकार और कहानीकार हैं। उनके उपन्यासों तथा कहानियों ने हिन्दी के करोड़ों पाठकों को तो प्रभावित किया ही है, भारत की अन्य भषाओं के पाठकों के हृदयों का स्पर्श किया है। उन्होंने संसार की रूसी, फ्रेंच, अंग्रेजी, चीनी, जापानी इत्यादि भाषाओं में हुए अनुवादों के द्वारा विश्व भर में हिन्दी का गौरव बढ़ाया है। प्रेमचन्द जनता के कलाकार थे। उनकी कृतियों में प्रस्तुत जनता के सुख-दुःख, आशा-आकांक्षा, उत्थान-पतन इत्यादि के सजीव चित्र हमारे हृदयों को हमेशा छूते रहेंगे। वे रवीन्द्र और शरद के साथ भारत के प्रमुख कथाकार हैं जिनको पढ़े बिना भारत को समझना संभव नहीं। इसी कथाशिल्पी की सात सामाजिक कहानियों का संग्रह ‘सप्त सुमन’।

कथाक्रम

1. बैर का अंत
2. मन्दिर
3. ईश्वरीय न्याय
4. सुजान भगत
5. ममता
6. सती
7. गृहदाह

बैर का अंत

रामेश्वरराय अपने बड़े भाई के शव को खाट से नीचे उतारते हुए छोटे भाई से बोले– तुम्हारे पास कुछ रुपये हों तो लाओ, दाह– क्रिया की फिक्र करें, मैं बिलकुल खाली हाथ हूँ।

छोटे भाई का नाम विश्वेश्वरराय था। वह एक जमींदार के कारिंदा थे, आमदानी अच्छी थी। बोले, आधे रुपये मुझसे ले लो। आधे तुम निकालो।

रामेश्वर– मेरे पास रुपये नहीं हैं।

विश्वेश्वर– तो फिर इनके हिस्से का खेत रेहन रख दो।

रामे.– तो जाओ, कोई महाजन ठीक करो। देर न लगे। विश्वेश्वरराय ने अपने मित्र से कुछ रुपये उधार लिये, उस वक्त का काम चला। पीछे फिर कुछ रुपये लिए, खेत की लिखा– पढ़ी कर दी। कुल पाँच बीघे ज़मीन थी, ३॰॰) रुपये मिले। गाँव के लोगों का अनुमान है कि क्रिया– कर्म में मुश्किल से १॰॰) रुपये उठें होंगे; पर विश्वेश्वरराय ने षोडशी के दिन ३॰१) का लेखा भाई के सामने रख दिया। रामेश्वर राय ने चकित हो कर पूछा– सब रुपये उठ गये?

विश्वे.– क्या मैं इतना नीच हूँ कि मरनी के रुपये भी कुछ उठा रक्खूँगा! किसको यह धन पचेगा।

रामे.– नहीं, मैं तुम्हें बेईमान नहीं बनाता, खाली पूछता था।

विश्वे.– कुछ शक हो तो जिस बनिये से चीजें ली गयी हैं, उससे पूछ लो।

साल– भर बाद एक दिन विश्वेश्वरराय ने भाई से कहा– रुपये हों तो लाओ, खेत छुड़ा लें।

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